आज परछाई से हुए रूबरू वर्षों बाद
अन्तर्मन की ध्वनि चीख पड़ी आखिर
उसके अश्रु हालातों पर टपक पड़े
लेने लगी सिसकियां जोर- जोर से
हमनें पूछा ,आख़िर हुआ क्या ऐसा
दर्द ए दिल जोर से धड़कने लगा
हमनें भी दिल की परतें खोल ली
साथ हो लिए हम परछाई के
सुबक-सुबक भार कर लिया हल्का
बोझ कब से उठा रही थी अँखियाँ
आज हम परछाई से पूछ बैठे व्यथा
न चाहते हुए भी बयां कर गई बहुत
आज जाना आखिर वो साथ क्यों है
जाना तो ये जाना कि वो है तो हम है
उसके अलावा दुनियाँ में साथ कौन है
वो और हम गले मिलकर जोर से हँसे
वायदा किया हर पल साथ निभाने का
हम दोनों बेतहाशा खुश हो गए आज
न ग़िला था,न कोई शिक़वा था
था तो सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनापन था
जो अश्रुओं के द्वारा फूट पड़ा नयनों से
आज हमारे नयन मुस्कुरा रहे थे ...
है न स्वप्न...!
सपना पारीक 'स्वप्न'