जिदंगी _ ए _ जिदंगी,
तुने जो कठिनाइयाँ दी थी , क्या वो कम था?
कि बिन मांगे तुमने _ मुफ्त में दिया वो गम था ।
क्या होता है जलन तुझे मेरी खुशियों से,
कि तुझसे हुआ नही सहन - और झीन ली मेरी मुस्कुराहट
जो देती थी मुझे दिन में चैन और रात को राहत ।
रात कि चाँदनी _ सी बनकर रह गई थी ""
दिन कि रौशनी _ सी बनकर रह गई थी ""
चाँद निकला तो समझ आया कि रात का पहर हो गया,
धूप निकलातो तो समझ आया की मेरी ही जिदंगी में कोई कसर रह गया ।
जिदंगी तुने सोचा ही क्या था???
तु अच्छा ना रहेगा तो मेरा बसर न हो सकेगा ;
या तु सच्चा ना रहेगा तो मेरा सफर न हो सकेगा ?
अरे ! जा ओ जिदंगी तु जिले अपना जीवन **
कयोंकि मैंने थाम लिया है वो पतंग _
जिसमें लिखा था मेरी खुशियों का गुब्बारा,,,
जिसे मैं कभी ना छोड़ेंगी दोबारा ।
जिदंगी जिले अपना जीवन ।
Saurav Prakash
(C) All Rights Reserved. Poem Submitted on 05/18/2019
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