शाह से आए कोई ख़त जैसे
हाथ से जाए सल्तनत जैसे

सुब्ह देती हो दस्तकें लेकिन
सो रही हो जम्हूरियत जैसे

वक़्त नाराज़ हो के बैठा है
हो गया हमसे कुछ ग़लत जैसे

ज़ुल्म ढाते हैं मुस्कुराते हैं
कुछ नहीं हो सही ग़लत जैसे

फ़ाइलें हैं मज़ार तक पीछे
सिर्फ़ मेरे हों दस्तख़त जैसे